प्रदूषण के कारण दो-तीन साल के बच्चे आ रहे अस्थमा की चपेट में
इंदौर। अस्थमा जैसी गंभीर बीमारी को लेकर चिकित्सा विज्ञान लगातार शोध कर रहा है, लेकिन प्रदूषित क्षेत्रों में अब भी इस बीमारी से प्रभावित बच्चों की संख्या चुनौती बनी हुई। अधिक वाहनों की आवाजाही वाले क्षेत्र हों या औद्योगिक क्षेत्र के आसपास के इलाका यहां के बच्चों में यह बीमारी अधिक सामने आ रही है।
दो-तीन साल की उम्र में ही बच्चों में इस बीमारी के लक्षण दिखने लगे हैं। लेकिन अभी भी लोगों में इसके प्रति जागरुकता नहीं आ पा रही है। अस्थमा को पहले बुजुर्गों की बीमारी कहा जाता था, लेकिन अब यह सभी उम्र वर्ग के लोग इसकी चपेट में आ चुके हैं। खासकर उन बच्चों में यह बीमारी फैलने का खतरा अधिक होता है, जिनके माता-पिता को किसी तरह की एलर्जी है।
अस्थमा एक लंबे समय तक चलने वाली सूजन संबंधी बीमारी है, जो फेफड़ों के वायुमार्ग को प्रभावित करती है। इसमें व्यक्ति को खांसी, सांस लेने में समस्या, घरघराहट, सीने में जकड़न जैसे लक्षण नजर आते हैं। यदि ऐसे कोई भी लक्षण होने पर डाक्टर की सलाह लेने से मरीजों को बेहतर इलाज मिल सकता है। अच्छी बात यह भी है कि अब अस्थमा के इलाज के लिए नई तकनीकें भी आ चुकी हैं, जिसके माध्यम से इसके लक्षण भी जल्दी पता चल जाते हैं और इलाज भी बेहतर मिलने लगा है।
अस्थमा की बढ़ती गंभीरता के कारणों के कई घटक हैं. उनमें हवा में पर्टिकुलेट कणों में वृद्धि के साथ वायु प्रदूषण का बढ़ना, धूम्रपान, बच्चों का गलत उपचार, बचपन में वायरल संक्रमण और हेल्थकेयर पेशेवरों के बीच जागरूकता बढ़ाना शामिल है।
ऐसे करें बचाव
अस्थमा को स्थायी रूप से तो ठीक नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसके ट्रिगर्स पर काम करके इसे कंट्रोल में जरूर रख सकते हैं। इसके लिए अस्थमा से ग्रस्त व्यक्ति को धूल-मिट्टी से बच कर रहना चाहिए। घर में कार्पेट या अन्य चीजों पर धूल ना जमने दें। चादर, तकिया कवर को गर्म पानी से साफ करें। जिस चीज से एलर्जी और उससे दूरी बनाए। इससे अस्थमा से बचा जा सकता है।
प्रदूषण के कारण ही यह बीमारी कम उम्र के बच्चों में भी होने लगी है। कई बार घर के सदस्य बाहर स्मोकिंग कर के घर में आते हैं, लेकिन इससे भी अन्य सदस्यों को अस्थमा होने का खतरा रहता है। जिन लोगों के घर के आसपास फैक्ट्रियां है, उन्हें एयर फिल्टर लगवाना चाहिए। इससे प्रदूषण से बच पाएंगे। फिलहाल अस्थमा को लेकर लोगों में जागरुकता की आवश्यकता है।
– डा. गौरव गुप्ता, विशेषज्ञ