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मैं ज़िंदा हूँ : शताब्दी का साक्षी, समाजवाद का प्रहरी

पुस्तक समीक्षा

मैं ज़िंदा हूँ : शताब्दी का साक्षी, समाजवाद का प्रहरी

संपादन : डॉ. संजय शर्मा | लेखक: पंडित रामकृष्ण

“कभी हार ना मानो” — यही विश्वास, यही ऊर्जा और यही विचार इस पुस्तक के हर पृष्ठ में जीवंत है। “मैं ज़िंदा हूँ: शताब्दी का साक्षी, समाजवाद का प्रहरी” केवल एक आत्मकथा नहीं है, यह एक विचारधारा की यात्रा है। यह पुस्तक पाठकों को एक ऐसे युग की ओर ले जाती है जहाँ राजनीति सिर्फ सत्ता की नहीं, बल्कि समाज के उत्थान की बात करती थी।

पिंकसिटी प्रेस क्लब में हुआ पुस्तक विमोचन

विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता :

पुस्तक का शीर्षक स्वयं यह संकेत देता है कि सार्वजनिक जीवन में विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रहना ही असली सफलता है — चाहे लोग उससे सहमत हों या नहीं। पंडित रामकृष्ण ने राममनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा को केवल पढ़ा या बोला नहीं, बल्कि उसे जिया है। आज जब अधिकांश तथाकथित समाजवादियों ने अवसरवाद से समझौता कर लिया है, तब पंडित जी की निष्ठा एक प्रेरणा बनकर सामने आती है।

एक शताब्दी की यात्रा :

पंडित रामकृष्ण की जीवन-यात्रा लगभग एक शताब्दी की है। यह पुस्तक केवल घटनाओं का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक विकास की एक जीवंत कहानी है। “मेरा बचपन” जैसे अध्याय से लेकर “वह दौर जिसने मुझे तैयार किया”, तक, हर अनुभव पाठक को उस दौर में ले जाता है जहाँ से एक सच्चे विचारशील नेता का निर्माण होता है।

सांस्कृतिक और राजनीतिक मंथन :

पुस्तक में आर्थिक विकासक्रम से उपजे गैर-सांप्रदायिक मूल्यों और वामपंथी-समाजवादी विचारधारा पर भी गंभीर चिंतन है। यह केवल आत्मकथा नहीं, एक वैचारिक केस स्टडी भी है, जिसमें समकालीन राजनीति के लिए भी कई संदेश छिपे हैं।

प्रमुख व्यक्तित्वों का उल्लेख :

भरतपुर की राजनीतिक और सामाजिक धरती के दिग्गजों जैसे मास्टर आदित्येन्द्र, जुगल किशोर चतुर्वेदी, और बाबू राज बहादुर का वर्णन इस पुस्तक को स्थानीय इतिहास के संदर्भ में भी मूल्यवान बना देता है।

सक्रिय राजनीतिक जीवन :

पुस्तक में जेल यात्राओं, आंदोलनों, प्रदर्शनों, विदेश यात्राओं और चुनावी संघर्षों का वर्णन पंडित जी के बहुआयामी राजनीतिक जीवन को उजागर करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि अनेक मुख्यमंत्रियों के साथ उनके अनुभव और संबंधों को भी पुस्तक में दर्ज किया गया है।

समाप्ति नहीं, आरंभ :

यह पुस्तक केवल एक स्मृतिचित्र नहीं है, यह एक जीवित दस्तावेज़ है — जो पाठक को यह सोचने पर मजबूर करती है कि विचार के बिना राजनीति कैसे खोखली हो जाती है। डॉ. संजय शर्मा का संपादन इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने लेखक की आत्मा को बनाए रखते हुए पाठकों के लिए एक पठनीय, प्रेरणादायक और विचारोत्तेजक ग्रंथ तैयार किया है।

संदेश यह है

“मैं ज़िंदा हूँ…” उस जीवन का साक्ष्य है जो न केवल जिया गया, बल्कि समाज और देश के लिए समर्पित किया गया। यह पुस्तक हर उस पाठक को पढ़नी चाहिए जो भारतीय राजनीति को विचारधारा के चश्मे से देखना चाहता है — और जो यह समझना चाहता है कि समाजवाद केवल एक सिद्धांत नहीं, जीने का तरीका है।

 

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